ब्राह्मण ग्रंथ
ब्राह्मण ग्रंथ- वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं को ब्रह्म कहा गया है। वहीं ब्रह्म के विस्तारित रुप को ब्राह्मण कहा गया है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मन्त्र सहित ब्राह्मण ग्रंथों की उपदेश आदित्य से प्राप्त किया है। संहिताओं के अन्तर्गत कर्मकांड की जो विधि उपदिष्ट है, ब्राह्मण मे उसी की सप्रमाण व्याख्या देखने को मिलता है। प्राचीन परम्परा में आश्रमानुरुप वेदों का पाठ करने की विधि थी अतः ब्रह्मचारी ऋचाओं ही पाठ करते थे ,गृहस्थ ब्राह्मणों का, वानप्रस्थ आरण्यकों और संन्यासी उपनिषदों का। गार्हस्थ्य धर्म का मननीय वेदभाग ही ब्राह्मण है। ब्राह्मण वेदों की गद्य में व्याख्या वाला खण्ड कहलाता है। वरीयता के क्रम में ब्राह्मण, वैदिक वाङ्मय का दूसरा भाग है। इसमें गद्य रूप में देवताओं की तथा यज्ञ की व्याख्या की गयी है और मन्त्रों पर भाष्य भी दिया गया है। इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है।
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- विद्वासों हि देवा- शतपथ ब्राह्मण के इस वचन का अर्थ है, विद्वान ही देवता होते हैं।
- यज्ञः वै विष्णु- यज्ञ ही विष्णु है।
- अश्वं वै वीर्यम- अश्व वीर्य, शौर्य या बल को कहते हैं।
- राष्ट्रम् अश्वमेधः- तैत्तिरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण के इन वचनों का अर्थ है - लोगों को एक अश्वमेघ करना ही है।
- अग्नि वाक, इंद्रः मनः, बृहस्पति चक्षु ..- गोपथ ब्राह्मण के इन शब्दों का अर्थ है कि अग्नि वाणी, इंद्र मन, बृहस्पति आँख, विष्णु कान हैं।
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