जैन धर्म
जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है जो उस दर्शन में निहित है जो सभी जीवित प्राणियों को अनुशासन तथा अहिंसा के माध्यम से मुक्ति का मार्ग एवं आध्यात्मिक शुद्धता और आत्मज्ञान का मार्ग सिखाता है।
जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म। 'जिन परम्परा' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित दर्शन'। अर्थात जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द संस्कृत के 'जि' धातु से बना है। 'जि' का अर्थ है - जीतना। इस प्रकार 'जिन' का अर्थ है - जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन , अपनी तन तथा वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को प्राप्त कर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'। रागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण 'वर्धमान महावीर' की उपाधि 'जिन' थी। इसी कारण उनके द्वारा प्रचारित धर्म 'जैन' कहलाता है।
जैन धर्म श्रमण परम्परा से निकला है जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं , जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले अनेक उल्लेखनिय साहित्य और पौराणिक साहित्य उपलब्ध हैं। जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं- श्वेतांबर व दिगम्बर तथा इनके ग्रन्थ समयसार व तत्वार्थ सूत्र हैं। जैनों के प्रार्थना स्थल जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन धर्म में अहिंसा का बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है। खानपान में भी अहिंसा का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। जैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नहीं है। इस प्रकार जैन दर्शन में भगवान को न तो कर्ता और न ही भोक्ता माना जाता है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। इस दर्शन के अनुसार संसार का कण-कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नहीं है। जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देने वाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं।
जैन धर्म में अनेक देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है परन्तु उनकी आराधना को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। जैन धर्म में जिन या अरिहन्त और सिद्ध को ईश्वर मानते हैं। अरिहंतो और केवलज्ञानी की आयुष्य पूर्ण होने पर जब वे जन्म-मरण से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते है तब उन्हें सिद्ध कहा जाता है। उन्हीं की आराधना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं तथा इन्हीं की आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध एवं ज्ञान प्राप्त कर तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है।
जैन तीर्थंकर- जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं।
- ऋषभदेव- वैदिक दर्शन परम्परा में ॠषभदेव को भगवन विष्णु के 24 अवतारों में से एक माना गया है।
- अजितनाथ
- सम्भवनाथ
- अभिनंदन जी
- सुमतिनाथ जी
- पद्मप्रभु जी
- सुपार्श्वनाथ जी
- चंदाप्रभु जी
- सुविधिनाथ- इन्हें 'पुष्पदन्त' भी कहा जाता है।
- शीतलनाथ जी
- श्रेयांसनाथ
- वासुपूज्य जी
- विमलनाथ जी
- अनंतनाथ जी
- धर्मनाथ जी
- शांतिनाथ
- कुंथुनाथ
- अरनाथ जी
- मल्लिनाथ जी
- मुनिसुव्रत जी
- नमिनाथ जी
- अरिष्टनेमि जी- इन्हें 'नेमिनाथ' भी कहा जाता है। जैन मान्यता में इन्हें श्रीकृष्ण का चचेरा भाई माना गया है।
- पार्श्वनाथ
- वर्धमान महावीर- इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है।
जैन धर्म के पांचमहाव्रत- जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवन पार्श्वनाथ ने जैन धर्म के चार महाव्रत बताए- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने जैन धर्म के चार महाव्रतों में एक और सिद्धान्त ब्रह्मचर्य जोड़ दिया, इस प्रकार जैन धर्म में पांच महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य हो गए। इन्हें सम्मिलित रूप में पंचशील सिद्धान्त कहा जाता है। सभी जैन मुनि, आर्यिका, श्रावक तथा श्राविका को इन पंचशील सिद्धान्त का पालन करना अनिवार्य माना गया है।
1. अहिंसा- अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसका बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है खानपान आचार नियम मे इसे विशेष रुप से देखा जा सकता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रकृति का कण-कण स्वतंत्र है और हमें किसी की स्वतंत्रता को छीनने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए जैन धर्म में हिंसा सबसे बड़ा पाप माना गया है। जैन धर्म के इस सिद्धांत में किसी भी प्रकार की हिंसा का त्याग करते हुए अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है।
2. सत्य- जैन धर्म के इस महाव्रत में सत्य बोलने पर जोर दिया गया है। इस महाव्रत को निम्न प्रकार से अमल में लाया जा सकता है-
- सदैव सोच-विचार कर बोलना चाहिये।
- क्रोध आने पर शान्त रहना चाहिये।
- लोभ होने पर मौन रहना चाहिये।
- हँसी में भी झूठ नहीं बोलना चाहिये।
- भय होने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिये।
3. अस्तेय (चोरी न करना):- इसके अन्र्तगत निम्नलिखित बातें बताई गयी है -
- बिना किसी की अनुमति के उसकी कोई भी वस्तु न लेना।
- बिना आज्ञा किसी के घर में प्रवेश न करना।
- बिना अनुमति के किसी के घर में निवास न करना।
- गुरू की आज्ञा लिए बिना भिक्षा में प्राप्त अन्न को ग्रहण न करना।
- यदि किसी के घर में रहना हो तो बिना उसकी आज्ञा के उसकी किसी भी वस्तु का उपयोग न करना।
4. अपरिग्रह (धन संचय का त्याग)- सम्पत्ति से मोह और आसक्ति का उदय होता है। इसलिए जैन धर्म के इस महाव्रत में किसी भी प्रकार की सम्पत्ति एकत्रित न करने पर जोर दिया गया है।
5. ब्रह्म्रह्मचर्य- इस महाव्रत के अंर्तगत भिक्षुओं से निम्न कृत्य अपेक्षित हैं-
- किसी स्त्री को न देखना।
- किसी स्त्री से बातें न करना।
- किसी स्त्री के संसर्ग की बात कभी न सोचना।
- शुद्ध एवं अल्प भोजन ग्रहण करना।
- ऐसे घर में न जाना जहाँ कोई स्त्री अकेली रहती हो।
जैन धर्म के त्रिरत्न सिद्धान्त- जैन धर्म में तीन रत्न, जिसे 'रत्नत्रय' भी कहते हैं, इनमें से किसी एक का अन्य दो के बिना स्वतंत्र रूप से अस्तित्व नहीं हो सकता है तथा आध्यात्मिक मुक्ति या मोक्ष के लिए तीनों आवश्यक हैं। जैन धर्म के त्रिरत्न हैं-
- 'सम्यक दर्शन'
- 'सम्यक ज्ञान'
- 'सम्यक चरित्र'
1. 'सम्यक दर्शन'- संस्कृत में सम्यक का अर्थ है सही और दर्शन का अर्थ है दृश्य। इस प्रकार सम्यक दर्शन का अर्थ है- सही दृश्य। सम्यक दर्शन सभी धर्मों की जड़ है। पहले चरण में होता है दर्शन यानी देखना। इस ब्रह्माण्ड की उन सभी बातों को देखना और मानना जो मूल रूप से है, जैसे की 7 तत्त्व। तत्वों के सच की सही और गहराई से जानकारी लेना सम्यक दर्शन है। आसान शब्दों में जीव, अजीव, कर्म, कर्मों का बंधन, कर्मों के परिणाम और मोक्ष के होने के भाव को समझना सम्यक दर्शन है। यह मुक्ति प्राप्त करने के लिए जैन धर्म के तीन रत्नों में से पहला है। सम्यक दर्शन का प्रतीक रंग सफेद है।
जब तक हम जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष आदि सात तत्त्वों का सच अच्छे से समझ नहीं लेते और मान नहीं लेते, तब तक हम दूसरे चरण अर्थार्त सम्यक ज्ञान की ओर नहीं जा सकते हैं।
2. 'सम्यक ज्ञान'- जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही जानना, न कम जानना, न अधिक जानना और न ही विपरीत जानना - जो ज्ञान ऐसा बोध कराता है, वह सम्यक ज्ञान है। दूसरे शब्दों में जैन धर्म में सात तत्वों का यथार्थ ज्ञान ही सम्यक ज्ञान कहलाता है। सम्यक ज्ञान व सम्यक दर्शन में अन्तर है। ज्ञान का अर्थ जानना है और दर्शन का अर्थ उसे मानना है। बिना सम्यक दर्शन के सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता है।
जैन धर्म में सम्यक ज्ञान के पांचभेद हैं-
- मतिज्ञान- इन्द्रियों और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं।
- श्रुतज्ञान- मतिज्ञान से जाने गए पदार्थ के विषय में विशेष जानने को श्रुतज्ञान कहते हैं।
- अवधिज्ञान- द्रव्य क्षेत्र कल भाव की मर्यादा लिए हुए रूपी द्रव्य के स्पष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते हैं।
- मन:पर्यय- दुसरे के मन में स्थित रूपी द्रव्य के स्पष्ट ज्ञान को मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं।
- केवलज्ञान- जो लोकालोक के तीनो कालों के समस्त पदार्थों को स्पष्ट प्रत्यक्ष एक साथ जनता है उसे केवलज्ञान कहते हैं।
3. सम्यक् चरित्र- इन सभी सच को जानने और समझने के बाद समय आता है उस समस्त ज्ञान को अपने चरित्र में उतार लेने का। समस्त ज्ञान को लेकर रख लेने से कुछ नहीं होगा। मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें उस ज्ञान पर अमल करना होगा और उसे अपने चरित्र में लाना होगा। इसको चरित्र में लाने के लिए हमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का मार्ग अपनाना होता है।
सम्यक चरित्र के दो भेद हैं-
- अणुव्रत (श्रावकों के लिए)
- महाव्रत (साधुओं के लिए)
इन व्रतों का पालन करके तथा सभी बातों का सम्यक् तरीके से बोध करने का लक्ष्य लक्ष्य रखते हुए हम धीरे-धीरे मोक्ष के करीब पहुँचते हैं।
Note- अणुव्रत, महाव्रतों की अपेक्षा सरल होते हैं। अणुव्रतों को गृहस्थ लोगों के लिए बनाया गया था।
जैन धर्म के सात तत्व- जैन धर्म के त्रिरत्न में से प्रथम रत्न सम्यक दर्शन में 7 तत्वों का वर्णन किया गया है जब तक हम इन सात तत्त्वों का सच अच्छे से समझ नहीं लेते और मान नहीं लेते, तब तक हम दूसरे चरण अर्थार्त सम्यक ज्ञान की ओर नहीं जा सकते हैं। ये सात तत्व हैं-
- जीव
- अजीव
- आस्रव
- बंध
- संवर
- निर्जरा
- मोक्ष
- जीव- साधारण शब्दों में जो जीता है, वह जीव है! जिसमें चेतनता है, वह जीव है! जिसमें प्राण हैं, वह जीव है! देखना और जानना जिसके उपयोग हैं, वह जीव है! इस प्रकार से देखा जाये तो हम जीव द्रव्य के ही पर्याय हैं। मनुष्य, त्रियंच, नारकी, देव, अरिहंत व् सिद्ध सभी जीव हैं। इसके अतिरिक्त बाकी सब अजीव हैं।
- अजीव- जीव (आत्मा) के अतिरिक्त जो भी पदार्थ हम देखते हैं वह सब अजीव हैं। जैसे कंप्यूटर, पंखा तथा फ़ोन इत्यादि सब कुछ अजीव तत्व हैं। जैन दर्शन में अजीव को "पुदगल" कहा गया है।
- आस्रव- आस्रव का अर्थ है कर्मों का आना, कर्म ही हैं जिनके कारण हम संसार मे भटक रहे हैं। जैन धर्म में कर्मों की संख्या 8 बताई गयी है। आस्रव हर समय होता रहता है, जिस वक़्त 1 सेकेंड/समय के लिए भी आस्रव रुक गया हम भगवान बन जायेंगे।
- बंध- जब कर्म आकर आत्मा के साथ जुड़ जाते हैं तो उसे बंध कहते हैं, ये कर्म जब तक अपना फल नहीं देते तब तक आत्मा के साथ बँधे रहते हैं।
- संवर- संवर कर्मों को आने से रोकने को कहा जाता है। अर्थार्त जो कर्म पहले से हैं उनके अलावा नये कर्मों को आने से रोकना ही संवर है।
- निर्ज़रा- आत्मा मे जो कर्म आकर बंध गये हैं, उन्हें हटाना ही निर्ज़रा कहलाता है। निर्जरा 2 प्रकार की होती है:- 1- सविपाक निर्जरा और 2- अविपाक निर्जरा। तप करना, नियम लेना, व्रत या उपवास, विनय, प्रायश्चित, उनोदर तथा रस-परित्याग से निर्ज़रा होती है।
- मोक्ष- निर्ज़रा के द्वारा जब यह जीव 8 कर्मों का नाश कर लेता है तो उसकी आत्मा मोक्ष को प्राप्त कर लेती है और इस संसार के जन्म-मरण से मुक्त होकर तीन लोक के अग्र/ऊपरी भाग सिद्ध-शिला पर विराजमान हो जाती है।
स्यादवाद- स्यादवाद या 'अनेकांतवाद' या 'सप्तभंगी का सिद्धान्त' जैन धर्म के मान्य सिद्धांतों में से एक है। 'स्यादवाद' का अर्थ 'सापेक्षतावाद' होता है। 'सापेक्षता' अर्थात 'किसी अपेक्षा से'। अपेक्षा के विचारों से कोई भी चीज सत् भी हो सकती है और असत् भी। इसी को 'सत्तभंगी नय' से समझाया जाता है। इसी का नाम 'स्यादवाद' है। यह जैन दर्शन के अंतर्गत किसी वस्तु के गुण को समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्षिक सिद्धांत है।
साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है। वस्तु के इस आंशिक ज्ञान को ही जैन दर्शन में 'नय' कहा गया है। 'नय' किसी भी वस्तु को समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। ये 'नय' सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं। आंशिक और सापेक्ष ज्ञान से ही सापेक्ष सत्य की प्राप्ति संभव है। सापेक्ष सत्य की प्राप्ति के कारण ही किसी भी वस्तु के संबंध में साधारण व्यक्ति का निर्णय सभी दृष्टियों से सत्य नहीं हो सकता। लोगों के बीच मतभेद उत्पन्न होने का कारण यह है कि वह दूसरे के विचारों की उपेक्षा करते हुए अपने विचारों को ही नितान्त सत्य मानने लगते हैं। विचारों को तार्किक रूप से अभिव्यक्त करने और ज्ञान की सापेक्षता का महत्व दर्शाने के लिए ही जैन दर्शन ने 'स्यादवाद' या 'सत्तभंगी नय' के सिद्धांत का प्रतिपादित किया।
स्यादवाद या अनेकांतवाद या सप्तभंगी का सिद्धान्त- जैन धर्म के अनुसार, विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा किसी वस्तु को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखे जाने के कारण प्रत्येक व्यक्ति का ज्ञान भी भिन्न-भिन्न हो सकता है।
उदहारण- 'एक अंधे ने हाथी के पैर छूकर कहा कि हाथी खम्भे के समान है। दूसरे ने कान छूकर कहा कि हाथी सूपड़े के समान है। तीसरे ने सूँड़ छूकर कहा कि हाथी एक विशाल अजगर के समान है। चौथे ने पूँछ छूकर कहा कि हाथी रस्सी के समान है।'
ज्ञान की यह विभिन्नता सात प्रकार की हो सकती है-
- है
- नहीं है
- है और नहीं है
- कहा नहीं जा सकता
- है किन्तु कहा नहीं जा सकता
- नहीं है और कहा नहीं जा सकता
- है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता।
इसे ही जैन धर्म में "स्यादवाद" या "अनेकांतवाद" या ''सप्तभंगी का सिद्धान्त'' कहा जाता है।
जैन धर्म के संप्रदाय- तीर्थंकर महावीर के समय तक अविछिन्न रही जैन परंपरा ईसा की तीसरी सदी में दो भागों में विभक्त हो गयी : दिगंबर और श्वेताम्बर। दिगम्बर संघ में साधु नग्न (दिगम्बर) रहते है और श्वेतांबर संघ के साधु श्वेत वस्त्र धारण करते है। इसी मुख्य विभन्ता के कारण यह दो संघ बने।
मुनि प्रमाणसागर जी ने जैनों के इस विभाजन पर अपनी रचना 'जैनधर्म और दर्शन' में विस्तार से लिखा है कि आचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञान के बल पर जान लिया था कि उत्तर भारत में 12 वर्ष का भयंकर अकाल पड़ने वाला है इसलिए उन्होंने सभी साधुओं को निर्देश दिया कि इस भयानक अकाल से बचने के लिए दक्षिण भारत की ओर विहार करना चाहिए।
आचार्य भद्रबाहु के साथ हजारों जैन मुनि (निर्ग्रन्थ) दक्षिण की ओर वर्तमान के तमिलनाडु और कर्नाटक की ओर प्रस्थान कर गए और अपनी साधना में लगे रहे। परन्तु कुछ जैन साधु उत्तर भारत में ही रुक गए थे। अकाल के कारण यहाँ रुके हुए साधुओं का निर्वाह आगमानुरूप नहीं हो पा रहा था इसलिए उन्होंने अपनी कई क्रियाएँ शिथिल कर लीं, जैसे कटि वस्त्र धारण करना, 7 घरों से भिक्षा ग्रहण करना, 14 उपकरण साथ में रखना आदि।
12 वर्ष बाद दक्षिण से लौट कर आये साधुओं ने ये सब देखा तो उन्होंने यहाँ रह रहे साधुओं को समझाया कि आप लोग पुनः तीर्थंकर महावीर की परम्परा को अपना लें पर साधु राजी नहीं हुए और तब जैन धर्म में दिगंबर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदाय बन गए।
दिगम्बर संप्रदाय- दिगम्बर साधु (निर्ग्रन्थ) वस्त्र धारण नहीं करते हैं, वह नग्न रहते हैं और साध्वियां श्वेत वस्त्र धारण करती हैं। दिगम्बर मत में तीर्थकरों की प्रतिमाएँ भी पूर्ण नग्न बनायी जाती हैं और उनका श्रृंगार भी नहीं किया जाता है। दिगंबर सम्प्रदाय तीन भागों विभक्त है-
- तारणपंथ
- तेरापंथ
- बीसपंथ
श्वेताम्बर संप्रदाय- श्वेताम्बर संप्रदाय के संन्यासी और साध्वियाँ श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, तीर्थकरों की प्रतिमाएँ धातु की आंख तथा कुंडल सहित बनायी जाती हैं और उनका शृंगार भी किया जाता है।
श्वेताम्बर संप्रदाय भी दो भाग मे विभक्त है-
- मूर्तिपूजक - ये तीर्थकरों की प्रतिमाओं की पूजा करते हैं।
- अमूर्तिपूजक - ये मूर्ति पूजा नहीं करते। ये द्रव्य पूजा की जगह भाव पूजा में विश्वास करते हैं।
अमूर्तिपूजक के भी दो भाग हैं-
- स्थानकवासी
- श्वेताम्बर तेरापन्थ
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