सामवेद
सामवेद- सामवेद गीत-संगीत प्रधान वेद है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है। सामवेद की प्रतिष्ठा के विषय में गीता में कहा गया है कि- वेदानां सामवेदोऽस्मि। महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम् कहकर सामवेद की महत्ता को दर्शाया गया है। इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है।
इस वेद का गायन करने वाले उद्गाता कहलाते थे। उन्होंने वेदगान में केवल तीन स्वरों के प्रयोग का उल्लेख किया है जो उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित कहलाते हैं। इसका नाम सामवेद इसलिये पड़ा है क्योंकि इसमें गायन-पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं।
सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु यह सभी वेदों का सार रूप है क्योंकि इस वेद में सभी वेदों के चुने हुए अंशों को शामिल किया गया है। सामवेद संहिता में जो 1875 मन्त्र हैं, उनमें से 1504 मन्त्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं। सामवेद में 17 मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं- आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी प्राप्त होती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर 13 शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (1) कौमुथीरयी, (2) राणायनीय और (3) जैमिनीय। सामवेद का अध्य्यन करने बाले पंडित पंचविश या उद्गाता कहलाते है।
अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों का विधिवत जप करने से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।
छान्दोग्य उपनिषद में सामवेद को उदगीथों का रस कहा गया है। अथर्ववेद के चौदहवें कांड, ऐतरेय ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद (जो शुक्ल यजुर्वेद का उपनिषद् है), में सामवेद और ऋग्वेद को पति-पत्नी के जोड़े के रूप में दर्शाया गया है -
अमो अहम अस्मि सात्वम् सामहमस्मि ऋक त्वम् , द्यौरहंपृथ्वीत्वं, ताविह संभवाह प्रजयामावहै।
अर्थात (अमो अहम अस्मि सात्वम् ) मैं -पति - अम हूं, सा तुम हो, (द्यौरहंपृथ्वीत्वं) मैं द्यौ (द्युलोक) हूं तुम पृथ्वी हो। (ताविह संभवाह प्रजयामावहै) हम साथ बढ़े और प्रजा वाले हों। ।
जिस प्रकार से ऋग्वेद के मंत्रों को ऋचा कहते हैं और यजुर्वेद के मंत्रों को यजूँषि कहते हैं उसी प्रकार सामवेद के मंत्रों को सामानि कहा जाता है। ऋगवेद में साम या सामानि का वर्णन 31 स्थलों पर आता है। सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक ऋषियों को एसे वैज्ञानिक सत्यों का ज्ञान था जिनकी जानकारी आधुनिक वैज्ञानिकों को सहस्त्राब्दियों बाद प्राप्त हो सकी है। उदाहरणतः - इन्द्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है। चन्द्र के मंडल में सूर्य की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं। साम मन्त्र क्रमांक 27 का भाषार्थ है- यह अग्नि द्यूलोक से पृथ्वी तक संव्याप्त जीवों तक का पालन कर्ता है। यह जल को रूप एवं गति देने में समर्थ है।
चारों वेदों में सामवेद की सबसे अधिक शाखाएँ मिलती हैं - 1001 शाखाएँ। शाखाओं में मंत्रों के अलग व्याखान, गाने के तरीके और मंत्रों के क्रम हैं। जहाँ भारतीय विद्वान इसे एक ही वेदराशि का अंश मानते हैं, कई पश्चिमी वेद-अनुसंधानी इसे बाद में लिखा गया ग्रंथ समझते हैं। लेकिन सामवेद या सामगान का विवरण ऋग्वेद में भी मिलता है। ऋग्वेद में कोई 31 जगहों पर वैरूपं, बृहतं, गौरवीति, रेवतं, अर्के इत्यादि नामों से सामगान या साम की चर्चा हुई है। यजुर्वेद में सामगान को रथंतरं, बृहतं आदि नामों से जाना गया है। इसके अतिरिक्त ऐतरेय ब्राह्मण में भी बृहत्, रथंतरं, वैरूपं, वैराजं आदि की चर्चा मिलती है।
सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का भी गौरव प्राप्त है। सामवेद के ब्राह्मण ग्रंथ पंचविश,ताण्डय,जैमिनीय है। गंधर्व-वेद सामवेद का उपवेद है यह भरत,नारद मुनि से संबंधित है इसमें गायन,नृत्य आदि वर्णित हैं।
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