बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला एक ज्ञानमार्गी धर्म और दर्शन है। ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में महात्मा गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया गया। महात्मा गौतम बुद्ध के जीवन के विषय में प्रामाणिक सामग्री विरल है। इस प्रसंग में उपलब्ध अधिकांश वृत्तान्त एवं कथानक भक्तिप्रधान रचनाएँ हैं। प्राचीनतम सामग्री में पालि त्रिपिटक के कुछ स्थलों पर उपलब्ध अल्प विवरण उल्लेखनीय हैं, जैसे- बुद्ध की पर्येषणा, सम्बोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन तथा महापरिनिर्वाण के विवरण आदि। इन सभी सामग्रियों को पूर्णतः प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है क्योंकि ये सभी सामग्रियां बौद्धकाल के बहुत बाद की हैं।
अधिकांश इतिहासकारों द्वारा यह माना जाता है कि कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने 563 ईसापूर्व के लगभग शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी वन में एक बालक को जन्म दिया। लुम्बिनी नामक स्थान वर्तमान नेपाल राज्य के अन्तर्गत भारत की सीमा से लगभग 7 किलोमीटर दूर है। यहाँ पर प्राप्त अशोक के रुम्मिनदेई स्तम्भलेख (अशोक का सबसे छोटा अभिलेख) से ज्ञात होता है 'इद बुधे जाते' (यहाँ बुद्ध जन्मे थे)। सुत्तनिपात में शाक्यों को हिमालय के निकट कोशल में रहने वाले गौतम गोत्र का क्षत्रिय कहा गया है। कोशलराज के अधीन होते हुए भी शाक्य जनपद स्वयं एक गणराज्य था।
इनके पिता इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन थे। उनकी माता महामाया कोलीय वंश से थीं। जन्म के पाँचवे दिन बुद्ध को 'सिद्धार्थ' नाम दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। जन्मसप्ताह में ही माता के देहान्त के कारण उनका पालन-पोषण उनकी मौसी एवं विमाता महाप्रजापती गौतमी द्वारा किया गया था।
सिद्धार्थ का मन बचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।
सिद्धार्थ ने राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। लेकिन विवाह के बाद उनका मन वैराग्य में चला गया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और धर्मपत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग एवं सत्य दिव्य ज्ञान की खोज में रात्रि में राजपाठ का मोह त्यागकर वन की ओर चले गए।
वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गए। जिसके बाद सारनाथ में इन्होंने अपना प्रथम उपदेश दिया, और उनका महापरिनिर्वाण 483 ईसा पूर्व कुशीनगर (वर्तमान में उत्तर प्रदेश में स्थित), भारत में हुआ था। उनके महापरिनिर्वाण के अगले पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी फैल गया। हीनयान/थेरवाद, महायान और वज्रयान बौद्ध धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय हैं।
दुनिया के करीब 2 अरब (29%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। किन्तु, अमेरिका के एक रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग 54 करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का कुल 7% हिस्सा है। इस रिसर्च ने चीन, जापान तथा वियतनाम जैसे देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, जबकि यह वे शीर्ष तीन देश हैं जहाँ बौद्धों की सर्वाधिक आबादी है। दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं। किन्तु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी करोड़ों बौद्ध अनुयायी हैं। बौद्ध धर्म दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।
महात्मा बुद्ध की सांसारिक सुखों से विरक्ति-
राजकुमार सिद्धार्थ के विषय में ब्राह्मणों ने भविष्यवाणी की थी कि यह बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पथ प्रदर्शक बनेगा। इसी से भयभीत होकर राजा शुद्धोधन ने राजकुमार सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीनों ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की समस्त सामग्री का प्रबन्ध किया गया था। दास-दासी राजकुमार सिद्धार्थ की सेवा में रख दिए गए। परन्तु ये सभी चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार सिद्धार्थ बगीचे की सैर को निकले, तो उन्हें एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया।
महाभिनिष्क्रमण-
अति सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे बच्चे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह त्यागकर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उन्हें संतोष प्राप्त नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।
सिद्धार्थ ने प्रारम्भ में केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग : एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से गुजर रहीं थीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ यह बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है।
ज्ञान की प्राप्ति-
बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कलाम थे, जिनसे उन्होंने संन्यास काल में शिक्षा प्राप्त की। 35 वर्ष की आयु में वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की तथा सुजाता नामक लड़की के हाथों खीर खाकर उपवास तोड़ा। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मन्नत पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठे ध्यान कर रहे थे। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उन्हें सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।
धर्म-चक्र-प्रवर्तन-
उस समय जनसाधारण की भाषा पाली थी। वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। ज्ञान प्राप्ति के बाद 'तपस्सु' तथा 'काल्लिक' नामक दो व्यक्ति उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया। महाप्रजापती गौतमी (बुद्ध की मौसी एवं विमाता) को सर्वप्रथम बौद्ध संघ मे प्रवेश मिला। आनंद, बुद्ध का प्रिय शिष्य था। बुद्ध आनंद को ही संबोधित करके अपने उपदेश देते थे।
महापरिनिर्वाण-
महापरिनिर्वाण एक संस्कृत है जिसका अर्थ है- 'मुक्ति' या 'अंतिम मृत्यु'। गौतम बुद्ध की मृत्यु 483 ई. में पूर्व कुशीनारा (कुशीनगर) में हुई थी। उस समय उनकी उम्र 80 वर्ष थी। बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे 'महापरिनिर्वाण' कहते हैं। लेकिन उनकी मृत्यु के मत में बौद्ध बुद्धिजीवी और इतिहासकार एकमत नहीं हैं।
बौद्ध ग्रंथ 'महापरिनिर्वाण सूक्त' में पाली भाषा में उल्लेखित है, 'उस वर्ष बारिश से पहले बुद्ध राजगृह में थे। वहां से वे भिक्षु संघ के साथ यात्राएं करते वैशाली पहुंचे। यहां पास के बेल्ग्राम में उन्होंने वर्षावास किया। यहां वे बीमार हो गये। स्वस्थ होने पर वे फिर अम्बग्राम, भंडग्राम, जम्बूग्राम, भोगनगर आदि की यात्रा करते पावा नामक ग्राम में पहुंचे। वे यहां चुंद कम्मारपुत्र नामक एक लुहार के आमों के वन में ठहरे। उसने खाने में उन्हें मीठे चावल, रोटी व मद्दव दिया। बुद्ध ने मीठे चावल व रोटी तो औरों को दिलवा दिए पर मद्दव इसलिए किसी को नहीं दिया क्योंकि उन्होंने समझ लिया था, यह कोई अन्य पचा नहीं सकेगा। स्वयं उन्होंने भी जरा सा खाया। शेष जमीन में गड़वा दिया। इसको खाते ही वे बीमार हो गये थे, संभव है कि एक ग्रामीण व्यक्ति के घर कुछ खाने के कारण उनके पेट में दर्द शुरु हो गया था।
बुद्ध इसी अवस्था में अपने शिष्यों के साथ कुशीनारा चल दिये। रास्ते में उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा, 'आनंद इस संधारी के चार तह करके बिठाओ। मैं थक गया हूं, लेटूंगा। आनंद मेरे लिए कुकुत्था नदी से पानी ले आओ। बुद्ध ने फिर उस कुकुत्था नदी में स्नान किया। उसके बाद वहीं रेत पर चीर बिछा कर लेट गए। कुछ देर आराम करने के बाद वह अब चलने लगे। रास्ते में उन्होंने हिरण्यवती नदी पार की। अंत में कुशीनारा पहुंचे। यहां उनका कहना था कि, 'मेरा जन्म दो शाल वृक्षों के मध्य हुआ था, अत: अन्त भी दो शाल वृक्षों के बीच में ही होगा। अब मेरा अंतिम समय आ गया है।' आनंद को बहुत दु:ख हुआ। वे रोने लगे। बुद्ध को पता लगा तो उन्होंने उन्हें बुलवाया और कहा, 'मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि जो चीज उत्पन्न हुई है, वह मरती है। निर्वाण अनिवार्य और स्वाभाविक है। अत: रोते क्यों हो? बुद्ध ने आनंद से कहा कि मेरे मरने के बाद मुझे गुरु मानकर मत चलना। बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राहुल भी भिक्षु हो गये थे। पर बुद्ध ने उन्हें कभी कोई महत्व प्राप्त नहीं होने दिया। बुद्ध की पत्नी यशोधरा अंत तक उनकी शिष्या नहीं बनीं।
महात्मा बुद्ध के मरने पर 6 दिनों तक लोग दर्शनों के लिए आते रहे। सातवें दिन शव को जलाया गया। फिर उनके अवशेषों पर मगध के राजा अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्यों और वैशाली के विच्छवियों आदि में भयंकर झगड़ा हुआ। जब झगड़ा शांत नहीं हुआ तो द्रोण नामक एक व्यक्ति ने समझौता कराया कि अवशेष आठ भागों में बांट लिये जाएं। ऐसा ही हुआ। आठ स्तूप आठ राज्यों में बनाकर अवशेष रखे गये। बताया जाता है कि बाद में अशोक ने उन्हें निकलवा कर 84,000 स्तूपों में बांट दिया था।
महात्मा बुद्ध दार्शनिक या समाजसेवी-
विद्वान मानते हैं कि महात्मा बुद्ध दार्शनिक न होकर एक समाजसेवी थे। जब लोग महात्मा बुद्ध से आत्मा, परमात्मा तथा जगत से जुड़े 10 प्रश्न पूछते थे, तब महात्मा गौतम बुद्ध इन प्रश्नों पर मौन धारण कर लेते थे। इसी कारण कहा जा सकता है कि बुद्ध एक दार्शनिक न होकर एक महान समाजसेवी थे।
बुद्ध की शिक्षाएँ-
भगवान् बुद्ध की मूल शिक्षा क्या थी, इसपर प्रचुर विवाद है। स्वयं बौद्धों में कालान्तर में नाना सम्प्रदायों का जन्म और विकास हुआ और वे सभी अपने को बुद्ध से अनुप्राणित मानते हैं।
अधिकांश आधुनिक विद्वान् पालि त्रिपिटक के अन्तर्गत विनयपिटक और सुत्तपिटक में संगृहीत सिद्धान्तों को महात्मा बुद्ध की मूल शिक्षा मान लेते हैं। कुछ विद्वान् सर्वास्तिवाद अथवा महायान के सारांश को मूल शिक्षा स्वीकार करना चाहते हैं। अन्य विद्वान् मूल ग्रंथों के ऐतिहासिक विश्लेषण से प्रारंभिक और उत्तरकालीन सिद्धांतों में अधिकाधिक विवेक करना चाहते हैं।
चार आर्यसत्य, अष्टांगिक मार्ग तथा पंचशील आदि के रूप में बुद्ध की शिक्षाओं को समझा जा सकता है-
चार आर्य सत्य-
बुद्ध का पहला धर्मोपदेश, जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था, इन चार आर्य सत्यों के बारे में था। बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताये हैं।
- दुःख- इस दुनिया में दुःख है। जन्म में, बूढे होने में, बीमारी में, मौत में, प्रियतम से दूर होने में, नापसंद चीज़ों के साथ में, चाहत को न पाने में, सब में दुःख है।
- दुःख कारण- तृष्णा, या चाहत, दुःख का कारण है और फ़िर से सशरीर करके संसार को जारी रखती है।
- दुःख निरोध- दुःख-निरोध के आठ साधन बताये गये हैं जिन्हें ‘अष्टांगिक मार्ग’ कहा गया है। तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है।
- दुःख निरोध का मार्ग- तृष्णा से मुक्ति अष्टांगिक मार्ग के अनुसार जीने से पाई जा सकती है।
अष्टांगिक मार्ग-
गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना चाहिए-
- सम्यक् दृष्टि- वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि है। सामान्य रूप में सम्यक् दृष्टि का अर्थ है कि हम जीवन के सुख और दुःख का सही प्रकार से अवलोकन करें तथा आर्य सत्यों को समझें।
- सम्यक् संकल्प- आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना ही सम्यक् संकल्प है।
- सम्यक् वाक्- सदा सत्य तथा मृदु वाणी का प्रयोग करना ही सम्यक् वाक् है।
- सम्यक् कर्मान्त- इसका आशय अच्छे कर्मों में संलग्न होने तथा बुरे कर्मों के परित्याग से है।
- सम्यक् आजीव- विशुद्ध रूप से सदाचरण से जीवन-यापन करना ही सम्यक् आजीव है।
- सम्यक् व्यायाम- अकुशल धर्मों का त्याग तथा कुशल धर्मों का अनुसरण ही सम्यक् व्यायाम है।
- सम्यक् स्मृति- इसका आशय वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप के संबंध में सदैव जागरूक रहना है।
- सम्यक् समाधि- चित्त की समुचित एकाग्रता ही सम्यक् समाधि है।
कुछ लोग आर्य अष्टांग मार्ग को पथ की तरह समझते है, जिसमें आगे बढ़ने के लिए, पिछले के स्तर को पाना आवश्यक है। अष्टांगिक मार्ग के साधनों को तीन स्कन्धों में बांटा गया है-
- प्रज्ञा - सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक
- शील - सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम
- समाधि - सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि
पंचशील-
भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायिओं को पांच शीलों का पालन करने की शिक्षा दी है।
1. अहिंसा
पालि में – पाणातिपाता वेरमनी सीक्खापदम् सम्मादीयामी !
अर्थ – मैं प्राणि-हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
2. अस्तेय
पालि में – आदिन्नादाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं चोरी से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
3. अपरिग्रह
पालि में – कामेसूमीच्छाचारा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं व्यभिचार से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
4. सत्य
पालि में – मुसावादा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं झूठ बोलने से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
5. सभी नशा से विरत
पालि में – सुरामेरय मज्जपमादठटाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी।
अर्थ – मैं पक्की शराब (सुरा) कच्ची शराब (मेरय), नशीली चीजों (मज्जपमादठटाना) के सेवन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
बोधि-
गौतम बुद्ध ने जिस ज्ञान की प्राप्ति की थी उसे 'बोधि' कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि बोधि की प्राप्ति के बाद ही सांसारिक बन्धनों से छुटकारा पाया जा सकता है। सारी पारमिताओं (पूर्णताओं) की निष्पत्ति, चार आर्य सत्यों की पूरी समझ और कर्म के निरोध से ही बोधि पाई जा सकती है। बोधि की प्राप्ति के पश्चात, लोभ, दोष, मोह, अविद्या, तृष्णा और आत्मां में विश्वास सब गायब हो जाते हैं। बोधि के तीन स्तर होते हैं : श्रावकबोधि, प्रत्येकबोधि और सम्यकसंबोधि। सम्यकसंबोधि बौध धर्म की सबसे उन्नत आदर्श मानी जाती है।
बौद्ध धर्म के सिद्धान्त
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात, बौद्ध धर्म के अलग-अलग संप्रदाय हो गये हैं, परन्तु इन सभी के बहुत से सिद्धान्त आपस में मिलते हैं।
बोधिसत्व-
बौद्ध धर्म में दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों अर्थात मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा को प्राप्त कर लेते हैं तब "बुद्ध" कहलाते हैं। बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पराकाष्ठा को ही बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर न के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने का प्रयास करते हैं।
प्रतीत्यसमुत्पाद-
यह बौद्ध धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। प्रतीत्यसमुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है- "ऐसा होने पर वैसा होता है"। यह सिद्धान्त कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ से तात्पर्य एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर एक कार्य की उत्पत्ति से है। यह एक चक्र है इस चक्र के बारह क्रम हैं,जो एक दूसरे को उत्पन्न करने के कारण हैं-
- अविद्या
- संस्कार
- विज्ञान
- नाम-रूप
- षडायतन
- स्पर्श
- वेदना
- तृष्णा
- उपादान
- भव
- जाति
- जरा-मरण।
क्षणिकवाद-
बौद्ध दर्शन में सबसे महत्वपूर्ण दर्शन क्षणिकवाद का है। इसके अनुसार, इस ब्रह्मांड में सब कुछ क्षणिक और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं है। सब कुछ परिवर्तनशील है। वस्तु का निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और कोई भी पदार्थ एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं रहता है। कोई भी मनुष्य किसी भी दो क्षणों में एक सा नहीं रह सकता, इसिलिये आत्मा भी क्षणिक है और यह सिद्धान्त क्षणिकवाद कहलाता है। इसके लिए बौद्ध मतानुयायी प्रायः दीपशिखा की उपमा देते हैं। जब तक दीपक जलता है, तब तक उसकी लौ एक ही शिखा प्रतीत होती है, जबकि यह शिखा अनेकों शिखाओं की एक श्रृंखला है। एक बूँद से उत्पन्न शिखा दूसरी बूंद से उत्पन्न शिखा से भिन्न है, किन्तु शिखाओं के निरन्तर प्रवाह से एकता का भान होता है। इसी प्रकार सांसारिक पदार्थ क्षणिक है, किन्तु उनमें एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त ‘नित्यवाद’ और ‘अभाववाद’ के बीच का मध्यम मार्ग है। इस सिद्धांत का मूल महात्मा बुद्ध द्वारा दिये गये चार सत्यों पर आधारित है।
अनात्मवाद-
अनात्मवाद का शाब्दिक अर्थ है- "आत्मा का अस्तित्व न होना"। प्राणी शरीर और मन से बने है, जिसमे स्थायित्व नही है। प्राणी शरीर में क्षण-क्षण बदलाव होता है। इसलिए, 'मै'अर्थात आत्मा नाम की कोई स्थायी चीज़ नहीं है। अतः अन्य धर्मों में आत्मा के माने गए गुण जैसे- शाश्वत, नित्य, स्थाई , अजर तथा अमर आदि को बौद्ध धर्म में समाप्त माना जाता है। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है। आत्मा का स्थान मन ने लिया है। इस रूप में बौद्ध दर्शन में आत्मा सम्बन्धी सिद्धांत को अनात्मवाद कहा गया है।
आत्मा को न मानने पर भी बौद्ध धर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने सन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया। अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वैदिक धर्मावलम्बियों ने घोर विरोध किया। इस विरोध के फलस्वरूप बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किन्तु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय भी बन गए।
अनीश्वरवाद-
महात्मा बुद्ध ने बताया है कि ब्रह्म-जाल सूत् में सृष्टि का निर्माण कैसा हुआ है। सृष्टि का निर्माण होना और नष्ट होना बार-बार होता है। ईश्वर या महाब्रह्मा सृष्टि का निर्माण नहीं करते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात कार्यकरण-भाव के नियम पर चलती है। भगवान बुद्ध के अनुसार, मनुष्यों के दुःख और सुख के लिए कर्म जिम्मेदार है, ईश्वर या महाब्रह्मा नहीं। परन्तु अन्य जगह बुद्ध ने सर्वोच्च सत्य को अवर्णनीय कहा है।
शून्यवाद-
शून्यवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन नागार्जुन ने किया था। शून्यवाद या शून्यता बौद्धों की महायान शाखा माध्यमिक नामक विभाग का सिद्धान्त है जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है। नागार्जुन की दृष्टि में मूल तत्व शून्य के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है।
"माध्यमिक न्याय" ने "शून्यवाद" को दार्शनिक सिद्धांत के रूप में माना है। इसके अनुसार ज्ञेय और ज्ञान दोनों ही कल्पित हैं। पारमार्थिक तत्व एकमात्र "शून्य" ही है। "शून्य" सार, असत्, सदसत् और सदसद्विलक्षण, इन चार कोटियों से अलग है। जगत् इस "शून्य" का ही विवर्त है। विवर्त का मूल है संवृति, जो अविद्या और वासना के नाम से भी अभिहित होती है। इस मत के अनुसार कर्मक्लेशों की निवृत्ति होने पर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर उसी प्रकार शांत हो जाता है जैसे तेल और बत्ती समाप्त होने पर दीपक।
यथार्थवाद-
बौद्ध धर्म निराशावादी नहीं है। बौद्ध धर्म यथार्थवाद को महत्व देता है। महात्मा बुद्ध ने अन्धविश्वासों को अस्वीकार कर कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया। यही कारण है कि उन्होंने ईश्वर की सत्ता को नहीं माना। उनकी शिक्षायें यथार्थ अनुभव पर आधारित थी।
बौद्ध संप्रदाय
बौद्ध धर्म में संघ का बहुत बडा स्थान है। इस धर्म में बुद्ध, धम्म और संघ के सम्मिलित रूप को 'त्रिरत्न' कहा जाता है। अंगुत्तर निकाय के कालाम सुत्त में बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर धर्म पालन करने की स्वतन्त्रता दी है। संघ के नियमों के विषय में गौतम बुद्ध ने कहा था कि छोटे नियमों को भिक्षुगण परिवर्तित कर सकते हैं। अतः विनय के नियम में परिवर्तन, स्थानीय सांस्कृतिक/भाषिक पक्ष, व्यक्तिगत धर्म की स्वतन्त्रता, धर्म के निश्चित पक्ष में ज्यादा व कम जोड आदि कारण से बुद्ध धर्म में विभिन्न सम्प्रदाय उत्पन्न हुए। महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात संघ के आकार में व्यापक वृद्धि हुई। इस वृद्धि के पश्चात विभिन्न क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक अवस्था तथा दीक्षा, आदि के आधार पर भिन्न लोग बुद्ध धर्म से आबद्ध(जुड़े) हुए और संघ का नियम धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा। वर्तमान में, इन संघ में प्रमुख सम्प्रदाय या पंथ थेरवाद/हीनयान, महायान और वज्रयान है। भारत में बौद्ध धर्म का नवयान संप्रदाय है जो भीमराव आम्बेडकर द्वारा निर्मित है।
हीनयान/थेरवाद
हीनयान का आधार मार्ग आष्टांगिक है। वे जीवन को कष्टमय और क्षणभंगूर मानते हैं। इन कष्टों से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना होगा क्योंकि आपकी सहायता करने के लिए न कोई ईश्वर है, न देवी और न ही कोई देवता। बुद्ध की उपासना करना भी हीनयान विरुद्ध कर्म है। हीनयान संप्रदाय के लोग पाली भाषा का प्रयोग किया करते थे।
स्वयं मरे बगैर स्वर्ग नहीं मिलेगा इसीलिए जंगल में तपस्या करो। जीवन के हर मोर्चे पर पराक्रम करो। पूजा, पाठ, ज्योतिष और प्रार्थना सब व्यर्थ है, यह सिर्फ सुख का भ्रम पैदा करते हैं और मस्तिष्क को दुविधा में डालते हैं। शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए स्वयं ही प्रयास करना होगा।
हीनयान के सिद्धांतों के अनुसार बुद्ध एक महापुरुष थे। उन्होंने अपने प्रयत्नों से निर्वाण प्राप्त कर निर्वाण प्राप्ति का उपदेश दिया। हीनयान अनीश्वरवादी और कर्मप्रधान दर्शन है। भाग्यवाद जीवन का दुश्मन है।
हीनयान कई मतों में विभाजित था। माना जाता है कि इसके कुल अट्ठारह मत थे जिनमें से प्रमुख तीन हैं- थेरवाद (स्थविरवाद), सर्वास्तित्ववाद (वैभाषिक) और सौतांत्रिक।
महायान
महायान बुद्ध की पूजा करता है। भक्ति और पूजा की भावना के कारण लोग इसकी ओर सरलता से आकृष्ट हुए। महायान संप्रदाय ने गृहस्थों के लिए भी सामाजिक उन्नति का मार्ग निर्दिष्ट किया। महायान भक्ति प्रधान मत है। इसी मत के प्रभाव से बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण आंरभ हुआ। इसी ने बौद्ध धर्म में बोधिसत्व की भावना का समावेश किया। यह भावना सदाचार, परोपकार, उदारता आदि से सम्पन्न थी। इस मत के अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति सर्वोपरि लक्ष्य है।
महायान मतावलम्बी थेरावादियों को "हीनयान" अर्थात छोटी गाड़ी कहते हैं। यह बौद्ध धर्म की एक प्रमुख शाखा है जिसका आरंभ पहली शताब्दी के आस-पास माना जाता है। ईसा पूर्व पहली शताब्दी में वैशाली में द्वितीय बौद्ध-संगीति हुई जिसमें पश्चिमी और पूर्वी बौद्ध पृथक् हो गए। पूर्वी शाखा का ही आगे चलकर महायान नाम पड़ा। देश के दक्षिणी भाग में इस मत का प्रसार देखकर कुछ विद्वानों की मान्यता है कि इस विचारधारा का आरंभ उसी अंचल से हुआ। महायान मत के प्रमुख विचारकों में अश्वघोष, नागार्जुन और असंग के नाम प्रमुख हैं।महायान संप्रदाय के लोग संस्कृत भाषा का प्रयोग किया करते थे।
वज्रयान
वज्रयान संस्कृत शब्द हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में, विशेषतः तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण संप्रदाय समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है। दार्शनिक तौर पर वज्रयान में योगाचार साधना पद्धति, जिसमें मन की परम अवस्था (निर्वाण) पर बल दिया जाता है और माध्यमिक विचारदर्शन, जिसमें किसी आपेक्षिकीय सिद्धान्त को ही अंतिम मान लेने की चेष्ठा का विरोध किया जाता है, दोनों ही समाहित हैं।
वज्रयान ग्रंथों में अत्यंत प्रतीकात्मक भाषा प्रयोग की गई है। जिसका उद्देश्य इस पद्धति के साधकों को अपने भीतर ऐसे अनुभव प्राप्त करने में सहायता करना हैं, जो मनुष्य को उपलब्ध सर्वाधिक मूल्यवान अनुभूति समझे जाते हैं। इस प्रकार, वज्रयान गौतम बुद्ध के बोधिसत्त्व (ज्ञान का प्रकाश) प्राप्त करने के अनुभव को फिर से अनुभव करने की चेष्टा करता है।
बौद्ध संगीतियाँ
संगीति का अर्थ है 'साथ-साथ गाना'। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात से ही उनके उपदेशों को संगृहीत करने, उनका पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से संगीति (सम्मेलन) की प्रथा चल पड़ी थी। इन्हें धम्म संगीति (धर्म संगीति) कहा जाता है। बौद्ध धर्म में कुल 4 संगीतियाँ हुईं जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
बौद्ध साहित्य
ब्राह्मणेतर साहित्य के अंतर्गत प्राचीन भारतीय इतिहास के साधन के रूप में बौद्ध साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य पालि भाषा में लिखे गये थे। जबकि बाद के बौद्ध साहित्य संस्कृत भाषा में मिलते हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए थे जो उस समय जनसाधारण की भाषा थी।
त्रिपिटक-
त्रिपिटक बौद्ध धर्म का प्रमुख ग्रंथ है जिसे सभी बौद्ध सम्प्रदाय (महायान, थेरवाद, बज्रयान, मूलसर्वास्तिवाद आदि) स्वीकार करते हैं। यह बौद्ध धर्म का प्राचीनतम ग्रंथ है जिसमें भगवान बुद्ध के उपदेश संगृहीत हैं। यह ग्रंथ पालि भाषा में लिखा गया है और विभिन्न भाषाओं में अनुवादित किया गया है। इस ग्रंथ में भगवान बुद्ध द्वारा बुद्धत्त्व प्राप्त करने के समय से महापरिनिर्वाण तक दिए हुए प्रवचनों को संग्रहित किया गया है। त्रिपिटक का रचनाकाल ईसा पूर्व 100 से ईसा पूर्व 500 है। सभी त्रिपीटक सिहल देश अर्थात श्री लंका में लिखा गया था।
1. सुत्तपिटक- सुत्तपिटक बौद्ध धर्म का एक ग्रंथ है। यह ग्रंथ त्रिपिटक के तीन भागों में से एक है। सुत्त पिटक में तर्क और संवादों के रूप में भगवान बुद्ध के सिद्धांतों का संग्रह है। इनमें गद्य संवाद हैं, मुक्तक छन्द हैं तथा छोटी-छोटी प्राचीन कहानियाँ हैं। यह पाँच निकायों या संग्रहों में विभक्त है-
- दीघ निकाय
- मज्झिम निकाय
- संयुत्त निकाय
- अंगुत्तर निकाय
- खुद्दक निकाय
2. विनय पिटक- विनयपिटक में बौद्ध संघ के आचार-विचार के नियमों का संकलन है। विनय पिटक में बौद्ध मठों में निवास करने वाले भिक्षु व भिक्षुणियों के आचरण तथा अनुशासन सम्बन्धी नियम मिलते है। इस पिटक में दिए गये प्रत्येक नियम के साथ उन परिस्थितियों का भी वर्णन किया गया है, जिसके कारण गौतम बुद्ध ने उस नियम का विधान किया था। विनय पिटक में बौद्ध संघ की कार्य प्रणाली की व्यवस्था का भी वर्णन मिलता है। यह चार भागों में विभाजित है–
- सुत्त विभंग
- खन्धक
- परिवार
- पातिमोक्ख (प्रतिमोक्ष)
3. अभिधम्म पिटक- अभिधम्मपिटक में गौतम बुद्ध के उपदेशों, सिद्धांतों और बौद्ध मतों की दार्शनिक व्याख्या मिलती है। बौद्ध ग्रंथों में सर्वप्रथम अभिधम्मपिटक में ही संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है। बौद्ध मत के अनुसार अभिधम्म पिटक का संकलन मौर्य राजा अशोक के शासनकाल में सम्पन्न तृतीय बौद्ध संगीति (बौद्ध सभा) में मोगग्लिपुत्त तिस्स ने किया था। अभिधम्म पिटक सात भागों में विभाजित है-
1. धम्मसंगणि
2. विभंग
3. धातुकथा
4. पुग्गलपंचती
5. कथावत्यु
6. यमक
7. पट्ठान
2. विभंग
3. धातुकथा
4. पुग्गलपंचती
5. कथावत्यु
6. यमक
7. पट्ठान
इन सभी में कथावत्थु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कथावत्थु की रचना तृतीय बौद्ध संगीति (बौद्ध सभा) के अवसर पर मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी।
मिलिन्द्पन्ह-
मिलिन्दपन्ह (मिलिन्द के प्रश्न) पालि भाषा में रचित एक बौद्ध ग्रन्थ है जिसकी रचना बौद्ध भिक्षु नागसेन द्वारा लगभग १०० ई॰पूर्व की गई थी। इसमें बौद्ध भिक्षु नागसेन तथा भारत-यूनानी शासक मिलिन्द(Menander) के बीच हुए वार्तालाप का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में नागसेन मिलिंद के अनेक जटिल दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देकर उसकी धार्मिक जिज्ञासा को शांत करते है। मिलिन्दपन्ह का आरंभिक भाग कुछ इस प्रकार है-
मिलिन्दो नाम सो राजा सागलायं पुरुत्तमे।
उपगञ्छि नागसेनं गङ्गा च यथा सागरं॥
आसज्ज राजा चित्रकथिं उक्काधारं तमोनुदं।
अपुच्छि निपुणे पञ्हे ठानाट्ठानगते पुथू॥
पुच्छा विसज्जना चेव, गम्भीरत्थूपनिस्सिता।
हदयङ्गमा कण्णसुखा अब्भुता लोमहंसना॥
अभिधम्मविनयोगाळ्हा सुत्तजालसमत्तिता।
नागसेनकथा चित्रा ओपम्मेहि नयेहि च॥
तत्थ ञाणं पणिधाय हासयित्वान मानसं।
सुणाथ निपुणे पञ्हे कङ्खाट्ठानविदालनेति॥
दीपवंश-
'दीपवंस', 'द्वीपवंश' का अपभ्रंश है जिसका अर्थ 'द्वीप का इतिहास' है। यह एक पाली भाषा साहित्य का प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ है जिसमें श्रीलंका का प्राचीनतम इतिहास वर्णित है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस ग्रन्थ का संकलन अत्थकथा तथा अन्य स्रोतों से तीसरी-चौथी शताब्दी में किया गया था। महावंस तथा दीपवंस से ही श्रीलंका एवं भारत के प्राचीन इतिहास की बहुत सी घटनाओं का लेखाजोखा प्राप्त होता है।
महावंश-
महावंश (महान इतिहास) पालि भाषा में लिखी एक पद्य रचना है। इस टीका ग्रंथ की रचना "महानाम" स्थविर के हाथों हुई। इसमें श्रीलंका के राजाओं का वर्णन है। इसमें कलिंग के राजा विजय (५४३ ईसा पूर्व) के श्रीलंका आगमन से लेकर राजा महासेन (334–361) तक की अवधि का वर्णन है। "महावंश" पाँचवीं शताब्दी ई पू से चौथी शताब्दी ई तक लगभग साढ़े आठ सौ वर्षों का लेखा है। इसमें तथागत के तीन बार लंका आगमन का, तीनों बौद्ध संगीतियों का, विजय के लंका जीतने , देवानांप्रिय तिष्य के राज्यकाल में अशोक पुत्र महेंद्र के लंका आने, मगध से भिन्न भिन्न देशों में बौद्ध धर्म प्रचारार्थ भिक्षुओं के जाने तथा बोधि वृक्ष की शाखा सहित महेंद्र स्थविर की बहन अशोक पुत्री संघमित्रा के लंका आने का वर्णन है। यह सिंहल का प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य है। महान लोगों के वंश का परिचय कराने वाला होने से तथा स्वयं भी महान होने से ही इसका नाम "महावंश" पड़ा है।
बुद्धचरित-
बुद्धचरितम्, एक संस्कृत महाकाव्य है जिसकी रचना अश्वघोष ने की है। इसका रचनाकाल दूसरी शताब्दी में माना जाता है। इसमें महात्मा गौतम बुद्ध का जीवनचरित वर्णित है। इस महाकाव्य का आरम्भ बुद्ध के गर्भाधान से तथा इसकी परिणति बुद्धत्व-प्राप्ति में होती है। यह महाकव्य भगवान बुद्ध के संघर्षमय सफल जीवन का वर्णन करता है। इसकी कथा का रूप-विन्यास वाल्मीकिकृत रामायण से मिलता-जुलता है।
इसका चीनी भाषा में अनुवाद पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में 'धर्मरक्ष', 'धर्मक्षेत्र' अथवा 'धर्माक्षर' नामक किसी भारतीय विद्वान द्वारा ही किया गया था तथा 7वीं एवं 8वीं शताब्दी में इसका अत्यन्त शुद्ध तिब्बती अनुवाद किया गया। यह महाकाव्य अपने मूल रूप में अपूर्ण ही उपलब्ध है। इसमे मूलतः 28 सर्ग थें, लेकिन वर्तमान में 17 ही प्राप्त है, जिनमें 13 अथवा 14 सर्ग तक को ही प्रमाणित माना जाता है। अश्वघोष ने बुद्धचरित में गौतम बुद्ध के जीवन का सरल विवरण दिया है। इस महाकाव्य के शेष सर्ग संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। इस महाकाव्य के पूरे 28 सर्गों का चीनी तथा तिब्बती अनुवाद अवश्य ही उपलब्ध होता है।
सौन्दरनंद काव्यम्-
सौन्दरानन्द काव्यम्, अश्वघोष कृत संस्कृत साहित्य का एक बौद्ध ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ बुद्ध के सौतेले भाई आनन्द के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के प्रसंग पर आधारित है। अश्वघोष ने इस महाकाव्य में गौतम बुद्ध के सौतेले भाई सुन्दरनंद के उनके प्रभाव में आकर सांसारिक भोग-विलास को त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण करने का काव्यात्मक तरीके से वर्णन किया है |बुद्धचरित की अपेक्षा सौन्दरनन्द में 18 सर्ग हैं तथा यह पूर्ण रूप में मूल संस्कृत भाषा में उपलब्ध है।
शारिपुत्रप्रकरण-
शारिपुत्रप्रकरण अश्वघोष द्वारा रचित एक नाटक है, जो अपने खण्डित रूप में प्राप्त होता है। यह मध्य एशिया के तुर्फान नामक क्षेत्र में प्रो. ल्यूडर्स को तालपत्रों पर अपने खण्डित रूप में प्राप्त हुआ था। इसकी खण्डित प्रति में कहा गया है कि इसकी रचना सुवर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष ने की थी। इसकी खण्डित प्रति से ही ज्ञात होता है कि यह एक प्रकरण कोटि का नाटक रहा होगा जिसमें 9 अंक थे। इस प्रकरण में शारिपुत्र को बुद्ध द्वारा दीक्षित किये जाने का वर्णन मिलता है।
ललितविस्तर सूत्र-
ललितविस्तर सूत्र, महायान बौद्ध सम्प्रदाय का ग्रन्थ है। वैपुल्यसूत्रों में यह एक अन्यतम और पवित्रतम महायानसूत्र माना जाता है। इसमें भगवान बुद्ध की लीलाओं का वर्णन है। बुद्ध ने पृथ्वी पर जो-जो क्रीड़ा (ललित) की, उनका वर्णन होने के कारण इसे 'ललितविस्तर' कहा जाता है। इसे 'महाव्यूह' भी कहा जाता है। इसमें कुल 27 अध्याय हैं, जिन्हें 'परिवर्त' कहा जाता है। इसकी रचना किसी एक व्यक्ति ने नहीं की बल्कि इसकी रचना में कई व्यक्तियों का योगदान है। इसका रचना काल ईसा के पश्चात तीसरी शताब्दी माना गया है।
बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण बिन्दु
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